Gandhian Ideology and Contemporary Politics: गाँधीवादी विचार और आज की राजनीति
Introduction:
महात्मा गाँधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे नायक थे जिनके विचार और आचरण ने न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व को प्रभावित किया। सत्य, अहिंसा, स्वराज, ग्राम स्वराज और आत्मनिर्भरता जैसे उनके सिद्धांत आज भी आदर्श रूप में देखे जाते है। लेकिन आज की भारतीय राजनीति में गाँधीवादी विचारो की प्रासंगिकता पर चर्चा करना जरुरी हो गया है, क्योकि राजनीति आज जिस दिशा में बढ़ रही है वह गाँधी जी की कल्पना से बिलकुल विपरीत प्रतीत होती है।
गाँधीवादी विचारो का मूल आधार:
गाँधी जी के विचारो का मूल केंद्र था, सत्य और अहिंसा। उनका मानना था की कोई भी राजनितिक या सामाजिक परिवर्तन हिंसा से नहीं बल्कि प्रेम, करुणा, संवाद के माध्यम से लाया जा सकता है। उन्होंने अंग्रेजो के विरुद्ध असहयोग आंदोलन का नेतृत्व अहिंसात्मक ढंग से किया और जनसाधारण को जोड़ा।
गाँधी जी का स्वराज केवल राजनितिक सवतंत्रता नहीं था बल्कि आत्मनियंत्रण और आत्मनिर्भरता का भी प्रतिक था की भारत का हर गांव एक स्वायत्त इकाई बने और ग्राम स्वराज के माध्यम से विकास हो।
आज की राजनीति की तस्वीर:
आज की राजनीति का स्वरूप काफी बदल चुका हैं। विचार धारा की जगह जातिवाद, साम्प्रदायिकता, धनबल, बाहुबल, सत्तालोलुपता ने ले ली। अधिकांश राजनीति दल गाँधी जी के नाम का प्रयोग करते है लेकिन उनके विचारो को आत्मसात नहीं करते।
- अहिंसा का हश्र: आज की राजनीति में भाषा की मर्यादा टूट रही हैं। चुनावो में एक दूसरे के विरुद्ध घृणा और आरोप- प्रत्यारोप की राजनीति हावी हो गयी हैं। गाँधी जी ने जहाँ संवाद और संयम को महत्व दिया, वही आज के नेता उग्र भाषणों और विभाजनकारी बयानों से लाभ उठाने का प्रयास करते हैं।
- नैतिकता की कमी: गाँधी जी का जीवन एक नैतिक और आदर्श था। वे स्वयं को पहले बदलने पर विश्वास रखते थे। आज के राजनेता व्यक्तिगत जीवन में पारदर्शिता और नैतिकता से कोसो दूर दिखाई देते है। भ्रष्टाचार, घोटाले और सत्ता के लिए समझौते आम बात हो गयी है।
- ग्राम स्वराज और विकेन्द्रीकरण का आभाव: गाँधी जी ने गावों के विकास को राष्ट्र निर्माण का मूल आधार माना था। आज शहरीकरण की अंधी दौड़ में गावं उपेक्षित हो रहे है। विकेन्द्रीकरण की जगह केंद्रीकृत शासन प्रणाली को बढ़ावा मिल रहा है।
गाँधीवादी विचारो की आज भी प्रासंगिकता:
यधपि गांधीजी की मृत्यु को दशकों बीत चुके है फिर भी उनके विचार आज की सामाजिक और राजनितिक समस्याओ का समाधान दे सकते है।
- सत्य और पारदर्शिता : गांधीजी की तरह यदि राजनेता पारदर्शिता और सत्यनिष्ठा को अपनाएं, तो जनता और सत्ता के बीच का विश्वास मजबूत हो सकता है। जनप्रतिनिधियों को अपने कार्यो के लिए जनता के प्रति उत्तरदायित्व बनाना अनिवार्य है।
- अहिंसा: गांधीजी के अनुसार मन, वचन और शरीर से किसी को भी दु:ख न पहुँचाना ही अहिंसा है। गांधीजी के विचारों का मूल लक्ष्य सत्य एवं अहिंसा के माध्यम से विरोधियों का हृदय परिवर्तन करना है। अहिंसा का अर्थ ही होता है प्रेम और उदारता की पराकाष्ठा। गांधी जी व्यक्तिगत जीवन से लेकर वैश्विक स्तर पर ‘मनसा वाचा कर्मणा’ अहिंसा के सिद्धांत का पालन करने पर बल देते थे। आज के संघर्षरत विश्व में अहिंसा जैसा आदर्श अति आवश्यक है। गांधी जी बुद्ध के सिद्धांतों का अनुगमन कर इच्छाओं की न्यूनता पर भी बल देते थे।यदि इस सिद्धांत का पालन किया जाए तो आज क्षुद्र राजनीतिक व आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये व्याकुल समाज व विश्व अपनी कई समस्याओं का निदान खोज सकता है। आज संपूर्ण विश्व अपनी समस्याओं का हल हिंसा के माध्यम से ढूंढना चाहता है। वैश्वीकरण के इस दौर में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा ही खत्म होती जा रही है। अमेरिका, चीन, उत्तर कोरिया, ईरान जैसे देश हिंसा के माध्यम से प्रमुख शक्ति बनने की होड़ एवं दूसरों पर वर्चस्व के इरादे से हिंसा का सहारा लेते हैं। इस हेतु वैश्विक रूप से शस्त्रों की होड़ लग गई है। यह अंधी दौड़ दुनिया को अंतत: विनाश की ओर ले जाता है। आज अहिंसा जैसे सिद्धांतों का पालन करते हुए विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है जिसकी आज पूरे विश्व को आवश्यकता है।
3. सत्याग्रह: सत्याग्रह का अर्थ है सभी प्रकार के अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ शुद्धतम आत्मबल का प्रयोग करना। यह व्यक्तिगत पीड़ा सहन कर अधिकारों को सुरक्षित करने और दूसरों को चोट न पहुँचाने की एक विधि है। सत्याग्रह की उत्पत्ति उपनिषद, बुद्ध-महावीर की शिक्षा, टॉलस्टॉय और रस्किन सहित कई अन्य महान दर्शनों में मिलती है। गांधीजी का मत था कि निष्क्रिय प्रतिरोध कठोर-से-कठोर हृदय को भी पिघला सकता है। वे इसे दुर्बल मनुष्य का शस्त्र नहीं मानते थे। उनके अनुसार शारीरिक प्रतिरोध करने वाले की अपेक्षा निष्क्रिय प्रतिरोध करने वाले में कहीं ज्यादा साहस होना चाहिये।
आज के समय में सत्याग्रह का प्रयोग विभिन्न स्थानों एवं परिस्थितियों पर सुसंगत एवं तार्किक प्रतीत होता है। राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी नीतियों, आदेशों से मतभेद की स्थिति में विरोध हेतु सत्याग्रह का प्रयोग कहीं श्रेयस्कर है। आत्मबल शारीरिक बल से अधिक श्रेष्ठ होता है। बुराई के प्रतिकार के लिये यदि आत्मबल का सहारा लिया जाए तो मौजूदा परेशानियाँ दूर की जा सकती हैं।
4. सर्वोदय: सर्वोदय शब्द का अर्थ है ‘सार्वभौमिक उत्थान’ या सभी की प्रगति। यह शब्द पहली बार गांधीजी ने राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अंटू दिस लास्ट’ में पढ़ा था। सर्वोदय ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषण-मुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले। ऐसे समाज में वर्ण, धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर किसी समुदाय का न तो संहार हो और न ही बहिष्कार। सर्वोदय शब्द गांधीजी द्वारा प्रतिपादित एक ऐसा विचार है जिसमें ‘सर्वभूतहितं रता:’ की भारतीय कल्पना, सुकरात की ‘सत्य साधना’ और रस्किन की ‘अंत्योदय’ की अवधारणा सब कुछ सम्मिलित है। गांधीजी ने कहा था ‘‘मैं अपने पीछे कोई पंथ या संप्रदाय नहीं छोड़ना चाहता हूँ।’’ यही कारण है कि सर्वोदय आज एक समर्थ जीवन, समग्र जीवन और संपूर्ण जीवन का पयार्य बन चुका है।
आज के दौर में पूरा विश्व एक ऐसे ही समाज की खोज में है जहाँ शोषण , वर्ग, जाति आदि की कोई जगह न हो। कहीं रोहिंग्या तो कहीं शिया और सुन्नी के नाम पर हिंसा हो रही है तो कहीं आतंक फैलाया जा रहा है। एक वर्ग दूसरे का शोषण कर रहा है जिससे समाज में अव्यवस्था फैल रही है। अगर गांधीजी के सर्वोदय की संकल्पना साकार होती है तो संपूर्ण विश्व एक परिवार का रूप ले सकता है।
5. स्वराज: हालाँकि स्वराज शब्द का अर्थ स्व-शासन है, लेकिन गांधीजी ने इसे एक ऐसी अभिन्न क्रांति की संज्ञा दी जो कि जीवन के सभी क्षेत्रों को समाहित करती है। गांधी जी के लिये स्वराज का अर्थ व्यक्तियों के स्वराज (स्व-शासन) से था और इसलिये उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके लिये स्वराज का मतलब अपने देशवासियों हेतु स्वतंत्रता है और अपने संपूर्ण अर्थों में स्वराज स्वतंत्रता से कहीं अधिक है।
आत्मनिर्भर व स्वायत्त्त ग्राम पंचायतों की स्थापना के माध्यम से ग्रामीण समाज के अंतिम छोर पर मौजूद व्यक्ति तक शासन की पहुँच सुनिश्चित करना ही गांधी जी का ग्राम स्वराज सिद्धांत था। आर्थिक मामलों में भी गांधीजी विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के माध्यम से लघु, सूक्ष्म व कुटीर उद्योगों की स्थापना पर बल देते थे। उनका मत था कि भारी उद्योगों की स्थापना के पश्चात् इनसे निकलने वाली जहरीली गैसें व धुंआ पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, साथ ही बहुत बड़े उद्योगों का अस्तित्व श्रमिक वर्ग के शोषण का भी मार्ग तैयार करता है। आज इस महामारी के दौर में जब पूरे विश्व को एक बार फिर आर्थिक मंदी की ओर जाने का खतरा दिखाई दे रहा है ऐसे में इन कुटीर उद्योगों की स्थापना गरीब श्रमिकों के लिये आशा की किरण साबित होगी।
6. ट्रस्टीशिप: ट्रस्टीशिप एक सामाजिक-आर्थिक दर्शन है जिसे गांधीजी द्वारा प्रतिपादित किया गया था। यह अमीर लोगों को एक ऐसा माध्यम प्रदान करता है जिसके द्वारा वे गरीब और असहाय लोगों की मदद कर सकें। यह सिद्धांत गांधीजी के आध्यातिमक विकास को दर्शाता है, जो कि थियोसोफिकल लिटरेचर और भगवतगीता के अध्ययन से उनमें विकसित हुआ था। वर्तमान समय में गांधीजी की यह विचारधारा काफी प्रासंगिक है जब विश्व में गरीबी और भूखमरी चारों तरफ अपना साया फैलाये खड़ी है। गांधीजी का यह विचार कि धन व उत्पादन के साधनों पर सामूहिक नियंत्रण की स्थापना हेतु न्यास जैसी व्यवस्था स्थापित की जाए, काफी मायने रखती है।
7. स्वदेशी: स्वदेशी शब्द संस्कृत से लिया गया है और यह संस्कृत के दो शब्दों का एक संयोजन है। ‘स्व’ का अर्थ है स्वयं और देश का अर्थ देश ही है अर्थात् अपना देश। स्वदेशी का शाब्दिक अर्थ अपने देश से लिया जाता है परंतु अधिकांश संदर्भों में इसका अर्थ आत्मनिर्भरता के रूप में लिया जा सकता है। स्वदेशी राजनीतिक और आर्थिक दोनों तरह से अपने समुदाय के भीतर ध्यान केंद्रित करता है। यह समुदाय और आत्मनिर्भरता की अन्योन्याश्रिता है। गांधीजी का मानना था कि इससे स्वतंत्रता (स्वराज) को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि भारत का ब्रिटिश नियंत्रण उनके स्वदेशी उद्योगों के नियंत्रण में निहित था। स्वदेशी अभियान भारत की स्वतंत्रता की कुंजी थी और महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यव्रमों में चरखे द्वारा इसका प्रतिनिधित्व किया गया था।
आज जब अमेरिका एवं चीन जैसे देश व्यापार-युद्ध के माध्यम से अपने देश को सशक्त और दूसरे देशों की आर्थिक व्यवस्था को कमज़ोर करने पर तुले हैं। ऐसी स्थिति में स्वदेशी की यह संकल्पना देश के घरेलू उद्योगों और कारीगरों हेतु एक वरदान की भांति सिद्ध होगा।
गांधीजी शिक्षा के संदर्भ में अध्ययन व जीविका कमाने का कार्य एक साथ करने पर बल देते थे। आज जब बेरोजगारी देश की इतनी बड़ी समस्या है तब गांधीजी के इस विचार को ध्यान में रखकर शिक्षा नीतियाँ बनाना लाभप्रद होगा। गांधीजी का राष्ट्र का विचार भी अत्यंत प्रगतिशील था। उनका राष्ट्रवाद ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के विस्तार से प्रेरित था। वे राष्ट्रवाद की अंतिम परिणति केवल एक राष्ट्र के हितों तक सीमित न मानते हुए उसे विश्व कल्याण की दिशा में विस्तृत करने पर बल देते थे। आजकल राष्ट्रवाद का अतिवादी स्वरूप होता देखकर गांधीवादी राष्ट्रवाद सटीक लगता है।
हम पाते हैं कि गांधीजी के विचार शाश्वत है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्होंने जमीनी तौर पर अपने विचारों का परीक्षण किया और जीवन में सफलता अर्जित की जो न सिर्फ स्वयं के लिये अपितु पूरे विश्व के लिये थी। आज दुनिया गांधी के मार्ग को सबसे स्थायी रूप में देखती है।
गाँधीवादी विचारो की आज की जरुरत:
- शिक्षा में नैतिक मूल्यों का समावेश: आज की पीढ़ी को गाँधी जी के विचारो से परिचित कराना जरुरी है।
- राजनितिक प्रशिक्षण: नेताओ को नैतिक और गाँधीवादी मूल्यों पर आधारित प्रशिक्षण मिलाना चाहिए।
- ग्राम स्वराज: आज भी ग्रामीण विकास में गाँधी जी की आत्मनिर्भर गावं की अवधारणा प्रासंगिक है।
- अहिंसात्मक आंदोलन: सामाजिक बदलाव के लिए हिंसा नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण आंदोलन की जरुरत है।
निष्कर्ष:
महात्मा गाँधी केवल एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक विचारधारा थे। उनकी शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक है और राजनीति को दिशा देने में सक्षम है। यदि आज की राजनीति गाँधीवादी मूल्यों को अपनाये, तो यह न केवल लोकतंत्र को मजबूत करेगी बल्कि एक न्याय पूर्ण और समरस समाज की स्थापना भी संभव होगी।